इतिहास : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
PART-1
इतिहास : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857-1947)
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पुराने समय में जब पूरी दुनिया के लोग भारत आने के लिए उत्सुक रहा करते थे। फारसियों के बाद ईरानी और पारसी भी भारत में आकर बस गए। उनके बाद मुगल आए और वे भी भारत में स्थायी रूप से बस गए। चंगेज़खान, एक मंगोलियाई था जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किया और लूट पाट की। अलेक्ज़ेडर महान भी भारत पर विजय पाने के लिए आया किन्तु पोरस के साथ युद्ध में पराजित होकर वापस चला गया। हेन सांग नामक एक चीनी नागरिक यहां ज्ञान की तलाश में आया और उसने नालंदा तथा तक्षशिला विश्वविद्यालयों में भ्रमण किया जो प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय हैं। कोलम्बस भारत आना चाहता था किन्तु उसने अमेरिका के तटों पर उतरना पसंद किया। पुर्तगाल से वास्को डिगामा व्यापार करने अपने देश की वस्तुएं लेकर यहां आया जो भारतीय मसाले ले जाना चाहता था। यहां फ्रांसीसी लोग भी आए और भारत में अपनी कॉलोनियां बनाई।
अंत में ब्रिटिश लोग आए और उन्होंने लगभग 200 साल तक भारत पर शासन किया। वर्ष 1757 ने प्लासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश जनों ने भारत पर राजनैतिक अधिकार प्राप्त कर लिया। और उनका प्रभुत्व लॉर्ड डलहौजी के कार्य काल में यहां स्थापित हो गया जो 1848 में गवर्नर जनरल बने। उन्होंने पंजाब, पेशावर और भारत के उत्तर पश्चिम से पठान जनजातियों को संयुक्त किया। और वर्ष 1856 तक ब्रिटिश अधिकार और उनके प्राधिकारी यहां पूरी मजबूती से स्थापित हो गए। जबकि ब्रिटिश साम्राज्य में 19वीं शताब्दी के मध्य में अपनी नई ऊंचाइयां हासिल की, असंतुष्ट स्थानीय शासकों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों तथा सामान्य नागरिकों ने सैनिकों की तरह आवाज़ उठाई जो उन विभिन्न राज्यों की सेनाओं के समाप्त हो जाने से बेरोजगार हो गए थे, जिन्हें ब्रिटिश जनों ने संयुक्त किया था और यह असंतोष बढ़ता गया। जल्दी ही यह एक बगावत के रूप में फूटा जिसने 1857 के विद्रोह का आकार लिया।
1857 में भारतीय विद्रोह
भारत पर विजय, जिसे प्लासी के संग्राम (1757) से आरंभ हुआ माना जा सकता है, व्यावहारिक रूप से 1856 में डलहौजी के कार्यकाल का अंत था। किसी भी अर्थ में यह सुचारु रूप से चलने वाला मामला नहीं था, क्योंकि लोगों के बढ़ते असंतोष से इस अवधि के दौरान अनेक स्थानीय प्रांतियां होती रहीं। यद्यपि 1857 का विद्रोह, जो मेरठ में सैन्य कर्मियों की बगावत से शुरू हुआ, जल्दी ही आगे फैल गया और इससे ब्रिटिश शासन को एक गंभीर चुनौती मिली। जबकि ब्रिटिश शासन इसे एक वर्ष के अंदर ही दबाने में सफल रहा, यह निश्चित रूप से एक ऐसी लोकप्रिय क्रांति थी जिसमें भारतीय शासक, जनसमूह और नागरिक सेना शामिल थी, जिसने इतने उत्साह से इसमें भाग लिया कि इसे भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम कहा जा सकता है।
ब्रिटिश द्वारा जमीनदारी प्रथा को शुरू करना, जिसमें मजदूरों को भारी करों के दबाव से कुचल डाला गया था, इससे जमीन के मालिकों का एक नया वर्ग बना। दस्तकारों को ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के आगमन से नष्ट कर दिया गया। धर्म और जाति प्रथा, जिसने पारम्परिक भारतीय समाज की सुदृढ़ नींव बनाई थी अब ब्रिटिश प्रशासन के कारण खतरे में थी। भारतीय सैनिक और साथ ही प्रशासन में कार्यरत नागरिक वरिष्ठ पदों पर पदोन्नत नहीं किए गए, क्योंकि ये यूरोपियन लोगों के लिए आरक्षित थे। इस प्रकार चारों दिशाओं में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष और बगावत की भावना फैल गई, जो मेरठ में सिपाहियों के द्वारा किए गए इस बगावत के स्वर में सुनाई दी जब उन्हें ऐसी कारतूस मुंह से खोलने के लिए कहा गया जिन पर गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई थी, इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुईं। हिन्दु तथा मुस्लिम दोनों ही सैनिकों ने इन कारतूसों का उपयोग करने से मना कर दिया, जिन्हें 9 मई 1857 को अपने साथी सैनिकों द्वारा क्रांति करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया।
बगावती सेना ने जल्दी ही दिल्ली पर कब्जा कर लिया और यह क्रांति एक बड़े क्षेत्र में फैल गई और देश के लगभग सभी भागों में इसे हाथों हाथ लिया गया। इसमें सबसे भयानक युद्ध दिल्ली, अवध, रोहिलखण्ड, बुंदेल खण्ड, इलाहबाद, आगरा, मेरठ और पश्चिमी बिहार में लड़ा गया। विद्रोही सेनाओं में बिहार में कंवर सिंह के तथा दिल्ली में बख्तखान के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन को एक करारी चोट दी। कानपुर में नाना साहेब ने पेशावर के रूप में उद्घघोषणा की और तात्या टोपे ने उनकी सेनाओं का नेतृत्व किया जो एक निर्भीक नेता थे। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश के साथ एक शानदार युद्ध लड़ा और अपनी सेनाओं का नेतृत्व किया। भारत के हिन्दु, मुस्लिक, सिक्ख और अन्य सभी वीर पुत्र कंधे से कंधा मिलाकर लड़े और ब्रिटिश राज को उखाड़ने का संकल्प लिया। इस क्रांति को ब्रिटिश राज द्वारा एक वर्ष के अंदर नियंत्रित कर लिया गया जो 10 मई 1857 को मेरठ में शुरू हुई और 20 जून 1858 को ग्वालियर में समाप्त हुई
ईस्ट इन्डिया कम्पनी का अंत
1857 के विद्रोह की असफलता के परिणामस्वरूप, भारत में ईस्ट इन्डिया कंपनी के शासन का अंत भी दिखाई देने लगा तथा भारत के प्रति ब्रिटिश शासन की नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिसके अंतर्गत भारतीय राजाओं, सरदारों और जमींदारों को अपनी ओर मिलाकर ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के प्रयास किए गए। रानी विक्टोरिया के दिनांक 1 नवम्बर 1858 की घोषणा के अनुसार यह उद्घोषित किया गया कि इसके बाद भारत का शासन ब्रिटिश राजा के द्वारा व उनके वास्ते सेक्रेटरी आफ स्टेट द्वारा चलाया जाएगा।
रानी विक्टोरिया:
गवर्नर जनरल को वायसराय की पदवी दी गई, जिसका अर्थ था कि वह राजा का प्रतिनिधि था। रानी विक्टोरिया जिसका अर्थ था कि वह सम्राज्ञी की पदवी धारण करें और इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राज्य के आंतरिक मामलों में दखल करने की असीमित शक्तियां धारण कर लीं। संक्षेप में भारतीय राज्य सहित भारत पर ब्रिटिश सर्वोच्चता सुदृढ़ रूप से स्थापित कर दी गई। अंग्रेजों ने वफादार राजाओं, जमींदारों और स्थानीय सरदारों को अपनी सहायता दी जबकि, शिक्षित लोगों व आम जन समूह (जनता) की अनदेखी की। उन्होंने अन्य स्वार्थियों जैसे ब्रिटिश व्यापारियों, उद्योगपतियों, बागान मालिकों और सिविल सेवा के कार्मिकों (सर्वेन्ट्स) को बढ़ावा दिया। इस प्रकार भारत के लोगों को शासन चलाने अथवा नीतियां बनाने में कोई अधिकार नहीं था। परिणाम स्वरूप ब्रिटिश शासन से लोगों को घृणा बढ़ती गई, जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जन्म दिया।
राजा राम मोहन राय (1772-1833):
स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व राजा राम मोहन राय, बंकिम चन्द्र और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे सुधारवादियों के हाथों में चला गया। इस दौरान राष्ट्रीय एकता की मनोवैज्ञानिक संकल्पना भी, एक सामान्य विदेशी अत्याचारी/तानाशाह के विरूद्ध संघर्ष की आग को धीरे-धीरे आगे बढ़ाती रही।
राजा राम मोहन राय ने समाज को उसकी बुरी प्रथाओं से मुक्त करने के उद्देश्य से 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की। उन्होंने सती, बाल विवाह व परदा पद्धति जैसी बुरी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए काम किया, विधवा विवाह स्त्री शिक्षा और भारत में अंग्रेजी पद्धति से शिक्षा दिए जाने का समर्थन किया। इन्हीं प्रयासों के कारण ब्रिटिश शासन द्वारा सती होने को एक कानूनी अपराध घोषित किया गया।
स्वामी विवेकानन्द (1863-1902)
स्वामी विवेकानन्द जो रामकृष्ण परमहंस के शिष्य/अनुयायी थे, ने 1897 में वेलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। उन्होंने वेदांतिक दर्शन की सर्वोच्चता का समर्थन किया। 1893 में शिकागो (यू एस ए) की विश्व धर्म कांफ्रेस में उनके भाषण ने, पहली बार पश्चिमी लोगों को, हिंदू धर्म की महानता को समझने पर मज़बूर किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) का गठन
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की नींव, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में कलकत्ता में भारत एसोसिएशन के गठन के साथ रखी गई। एसोसिएशन का उद्देश्य शिक्षित मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करना, भारतीय समाज को संगठित कार्यवाही के लिए प्रेरित करना था। एक प्रकार से भारतीय एसोसिएशन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसकी स्थापना सेवा निवृत्त ब्रिटिश अधिकारी ए.ओ.ह्यूम की सहायता की गई थी, की पूर्वगामी थी। 1895 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) के जन्म से नव शिक्षित मध्यम वर्ग के राजनीति में आने के लक्ष्ण दिखाई देने लगे तथा इससे भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन दिसम्बर 1885 में बम्बई में वोमेश चन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में हुआ तथा इसमें अन्यों के साथ-साथ भाग लिया।
सदी के बदलने के समय, बाल गंगाधर तिलक और अरविंद घोष जैसे नेताओं द्वारा चलाए गए "स्वदेशी आंदोलन" के मार्फत् स्वतंत्रता आंदोलन सामान्य अशिक्षित लोगों तक पहंचा। 1906 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन जिसकी अध्यक्षता दादा भाई नौरोजी ने की थी, ने "स्वराज्य" प्राप्त करने का नारा दिया अर्थात् एक प्रकार का ऐसा स्वशासन जा ब्रिटिश नियंत्रण में चुने हुए व्यक्तियों द्वारा चलाया जाने वाला शासन हो, जैसा कनाडा व आस्ट्रेलिया में, जो ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन थे, में प्रचलित था।
बीच, 1909 में ब्रिटिश सरकार ने, भारत सरकार के ढांचे में कुछ सुधार लाने की घोषणा की, जिसे मोरले-मिन्टो सुधारों के नाम से जाना जाता है। परन्तु इन सुधारों से निराशा ही प्राप्त हुई क्योंकि इसमें प्रतिनिधि सरकार की स्थापना की दिशा में बढ़ने का कोई प्रयास दिखाई नहीं दिया। मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व दिए जाने के प्रावधान को हिंदु-मुसलमान एकता जिस पर राष्ट्रीय आंदोलन टिका हुआ था, के लिए खतरे के रूप में देखा गया अत: मुसलमानों के नेता मोहम्मद अली जिन्ना समेत सभी नेताओं द्वारा इन सुधारों का ज़ोरदार विरोध किया गया। इसके बाद सम्राट जार्ज पंचम ने दिल्ली में दो घोषणाएं की, प्रथम बंगाल विभाजन जो 1905 में किया गया था को निरस्त किया गया, द्वितीय, यह घोषणा की गई कि भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाई जाएगी।
वर्ष 1909 में घोषित सुधारों से असंतुष्ट होकर स्वराज आन्दोलन के संघर्ष को और तेज कर दिया गया। जहां एक ओर बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चन्द्र पाल जैसे महान नेताओं ने ब्रिटिश राज के खिलाफ एक तरह से लगभग युद्ध ही शुरू कर दिया तो दूसरी ओर क्रांतिकारियों ने हिंसात्मक गतिविधियां शुरू कर दीं। पूरे देश में ही एक प्रकार की अस्थिरता की लहर चल पड़ी। लोगों के बीच पहले से ही असंतोष था, इसे और बढ़ाते हुए 1919 में रॉलेट एक्ट अधिनियम पारित किया गया, जिससे सरकार ट्रायल के बिना लोगों को जेल में रख सकती थी। इससे लोगों में स्वदेश की भावना फैली और बड़े-बड़े प्रदर्शन तथा धरने दिए जाने लगे, जिन्हें सरकार ने जलियांवाला बाग नर संहार जैसी अत्याचारी गतिविधियों से दमित करने का प्रयास किया, जहां हजारों बेगुनाह शांति प्रिय व्यक्तियों को जनरल डायर के आदेश पर गोलियों से भून दिया गया।
जलियांवाला बाग नरसंहार
दिनांक 13 अप्रेल 1919 को जलियांवाला बाग में हुआ नरसंहार भारत में ब्रिटिश शासन का एक अति घृणित अमानवीय कार्य था। पंजाब के लोग बैसाखी के शुभ दिन जलियांवाला बाग, जो स्वर्ण मंदिर के पास है, ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ अपना शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शित करने के लिए एकत्रित हुए। अचानक जनरल डायर अपने सशस्त्र पुलिस बल के साथ आया और निर्दोष निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई, तथा महिलाओं और बच्चों समेंत सैंकड़ों लोगों को मार दिया। इस बर्बर कार्य का बदला लेने के लिए बाद में ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग के कसाई जनरल डायर को मार डाला।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद मोहनदास करमचन्द गांधी कांग्रेस के निर्विवाद नेता बने। इस संघर्ष के दौरान महात्मा गांधी ने अहिंसात्मक आंदोलन की नई तरकीब विकसित की, जिसे उसने "सत्याग्रह" कहा, जिसका ढीला-ढाला अनुवाद "नैतिक शासन" है। गांधी जो स्वयं एक श्रद्धावान हिंदु थे, सहिष्णुता, सभी धर्मों में भाई में भाईचारा, अहिंसा व सादा जीवन अपनाने के समर्थक थे। इसके साथ, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस जैसे नए नेता भी सामने आए व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए संपूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य अपनाने की वकालत की।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम PART-3 (1857-1947)
असहयोग आंदोलन
सितम्बर 1920 से फरवरी 1922 के बीच महात्मा गांधी तथा भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया गया, जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई जागृति प्रदान की। जलियांवाला बाग नर संहार सहित अनेक घटनाओं के बाद गांधी जी ने अनुभव किया कि ब्रिटिश हाथों में एक उचित न्याय मिलने की कोई संभावना नहीं है इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से राष्ट्र के सहयोग को वापस लेने की योजना बनाई और इस प्रकार असहयोग आंदोलन की शुरूआत की गई और देश में प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रभाव हुआ। यह आंदोलन अत्यंत सफल रहा, क्योंकि इसे लाखों भारतीयों का प्रोत्साहन मिला। इस आंदोलन से ब्रिटिश प्राधिकारी हिल गए।
साइमन कमीशन:
असहयोग आंदोलन असफल रहा। इसलिए राजनैतिक गतिविधियों में कुछ कमी आ गई थी। साइमन कमीशन को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत सरकार की संरचना में सुधार का सुझाव देने के लिए 1927 में भारत भेजा गया। इस कमीशन में कोई भारतीय सदस्य नहीं था और सरकार ने स्वराज के लिए इस मांग को मानने की कोई इच्छा नहीं दर्शाई। अत: इससे पूरे देश में विद्रोह की एक चिंगारी भड़क उठी तथा कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग ने भी लाला लाजपत राय के नेतृत्व में इसका बहिष्कार करने का आव्हान किया। इसमें आने वाली भीड़ पर लाठी बरसाई गई और लाला लाजपत राय, जिन्हें शेर - ए - पंजाब भी कहते हैं, एक उपद्रव से पड़ी चोटों के कारण शहीद हो गए।
नागरिक अवज्ञा आंदोलन
महात्मा गांधी ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसकी शुरूआत दिसंबर 1929 में कांग्रेस के सत्र के दौरान की गई थी। इस अभियान का लक्ष्य ब्रिटिश सरकार के आदेशों की संपूर्ण अवज्ञा करना था। इस आंदोलन के दौरान यह निर्णय लिया गया कि भारत 26 जनवरी को पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। अत: 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में बैठकें आयोजित की गई और कांग्रेस ने तिरंगा लहराया। ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की तथा इसके लिए लोगों को निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया, हजारों लोगों को मार डाला गया। गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू के साथ कई हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। परन्तु यह आंदोलन देश के चारों कोनों में फैल चुका था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया और गांधी जी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में लंदन में भाग लिया। परन्तु इस सम्मेलन का कोई नतीजा नहीं निकला और नागरिक अवज्ञा आंदोलन पुन: जीवित हो गया।
इस समय, विदेशी निरंकुश शासन के खिलाफ प्रदर्शन स्वरूप दिल्ली में सेंट्रल असेम्बली हॉल (अब लोकसभा) में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को गिरफ्तार किया गया था। 23 मार्च 1931 को उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम PART-4 (1857-1947)
भारत छोड़ो आंदोलन
अगस्त 1942 में गांधी जी ने ''भारत छोड़ो आंदोलन'' की शुरूआत की तथा भारत छोड़ कर जाने के लिए अंग्रेजों को मजबूर करने के लिए एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन ''करो या मरो'' आरंभ करने का निर्णय लिया। इस आंदोलन के बाद रेलवे स्टेशनों, दूरभाष कार्यालयों, सरकारी भवनों और अन्य स्थानों तथा उप निवेश राज के संस्थानों पर बड़े स्तर पर हिंसा शुरू हो गई। इसमें तोड़ फोड़ की ढेर सारी घटनाएं हुईं और सरकार ने हिंसा की इन गतिविधियों के लिए गांधी जी को उत्तरदायी ठहराया और कहा कि यह कांग्रेस की नीति का एक जानबूझ कर किया गया कृत्य है। जबकि सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, कांग्रेस पर प्रतिबंद लगा दिया गया और आंदोलन को दबाने के लिए सेना को बुला लिया गया।
इस बीच नेता जी सुभाष चंद्र बोस, जो अब भी भूमिगत थे, कलकत्ता में ब्रिटिश नजरबंदी से निकल कर विदेश पहुंच गए और ब्रिटिश राज को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए उन्होंने वहां इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) या आजाद हिंद फौज का गठन किया।
द्वितीय विश्व युद्ध सितम्बर 1939 में शुरू हुआ और भारतीय नेताओं से परामर्श किए बिना भारत की ओर से ब्रिटिश राज के गर्वनर जनरल ने युद्ध की घोषणा कर दी। सुभाष चंद्र बोस ने जापान की सहायता से ब्रिटिश सेनाओं के साथ संघर्ष किया और अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों को ब्रिटिश राज के कब्जे से मुक्त करा लिया तथा वे भारत की पूर्वोत्तर सीमा पर भी प्रवेश कर गए। किन्तु 1945 में जापान ने पराजय पाने के बाद नेता जी एक सुरक्षित स्थान पर आने के लिए हवाई जहाज से चले परन्तु एक दुर्घटनावश उनके हवाई जहाज के साथ एक हादसा हुआ और उनकी मृत्यु हो गई।
"''तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हें आजादी दूंगा''" - उनके द्वारा दिया गया सर्वाधिक लोकप्रिय नारा था, जिसमें उन्होंने भारत के लोगों को आजादी के इस संघर्ष में भाग लेने का आमंत्रण दिया।
भारत और पाकिस्तान का बंटवारा
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी शासन में आई। लेबर पार्टी आजादी के लिए भारतीय नागरिकों के प्रति सहानुभूति की भावना रखती थी। मार्च 1946 में एक केबिनैट कमीशन भारत भेजा गया, जिसके बाद भारतीय राजनैतिक परिदृश्य का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया गया, एक अंतरिम सरकार के निर्माण का प्रस्ताव दिया गया और एक प्रांतीय विधान द्वारा निर्वाचित सदस्यों और भारतीय राज्यों के मनोनीत व्यक्तियों को लेकर संघटक सभा का गठन किया गया। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व ने एक अंतरिम सरकार का निर्माण किया गया। जबकि मुस्लिम लीग ने संघटक सभा के विचार विमर्श में शामिल होने से मना कर दिया और पाकिस्तान के लिए एक अलग राज्य बनाने में दबाव डाला। लॉर्ड माउंटबेटन, भारत के वाइसराय ने भारत और पाकिस्तान के रूप में भारत के विभाजन की एक योजना प्रस्तुत की और तब भारतीय नेताओं के सामने इस विभाजन को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि मुस्लिम लीग अपनी बात पर अड़ी हुई थी।
इस प्रकार 14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को भारत आजाद हुआ (तब से हर वर्ष भारत में 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है)। जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 1964 तक उनका कार्यकाल जारी रहा। राष्ट्र की भावनाओं को स्वर देते हुए प्रधानमंत्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा,
कई वर्ष पहले हमने नियति के साथ निश्चित किया और अब वह समय आ गया है जब हम अपनी शपथ दोबारा लेंगे, समग्रता से नहीं या पूर्ण रूप से नहीं बल्कि अत्यंत भरपूर रूप से। मध्य रात्रि के घंटे की चोट पर जब दुनिया सो रही होगी हिन्दुस्तान जीवन और आजादी के लिए जाग उठेगा। एक ऐसा क्षण जो इतिहास में दुर्लभ ही आता है, जब हम अपने पुराने कवच से नए जगत में कदम रखेंगे, जब एक युग की समाप्ति होगी और जब राष्ट्र की आत्मा लंबे समय तक दमित रहने के बाद अपनी आवाज पा सकेगा। हम आज दुर्भाग्य का एक युग समाप्त कर रहे हैं और भारत अपनी दोबारा खोज आरंभ कर रहा है।
पहले, संघटक सभा का गठन भारतीय संविधान को रूपरेखा देना के लिए जुलाई 1946 में किया गया था और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को इसका राष्ट्रपति निर्वाचित किया गया था। भारतीय संविधान, जिसे 26 नवम्बर 1949 को संघटक सभा द्वारा अपनाया गया था। 26 जनवरी 1950 को यह संविधान प्रभावी हुआ और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया।
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पुराने समय में जब पूरी दुनिया के लोग भारत आने के लिए उत्सुक रहा करते थे। फारसियों के बाद ईरानी और पारसी भी भारत में आकर बस गए। उनके बाद मुगल आए और वे भी भारत में स्थायी रूप से बस गए। चंगेज़खान, एक मंगोलियाई था जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किया और लूट पाट की। अलेक्ज़ेडर महान भी भारत पर विजय पाने के लिए आया किन्तु पोरस के साथ युद्ध में पराजित होकर वापस चला गया। हेन सांग नामक एक चीनी नागरिक यहां ज्ञान की तलाश में आया और उसने नालंदा तथा तक्षशिला विश्वविद्यालयों में भ्रमण किया जो प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय हैं। कोलम्बस भारत आना चाहता था किन्तु उसने अमेरिका के तटों पर उतरना पसंद किया। पुर्तगाल से वास्को डिगामा व्यापार करने अपने देश की वस्तुएं लेकर यहां आया जो भारतीय मसाले ले जाना चाहता था। यहां फ्रांसीसी लोग भी आए और भारत में अपनी कॉलोनियां बनाई।
अंत में ब्रिटिश लोग आए और उन्होंने लगभग 200 साल तक भारत पर शासन किया। वर्ष 1757 ने प्लासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश जनों ने भारत पर राजनैतिक अधिकार प्राप्त कर लिया। और उनका प्रभुत्व लॉर्ड डलहौजी के कार्य काल में यहां स्थापित हो गया जो 1848 में गवर्नर जनरल बने। उन्होंने पंजाब, पेशावर और भारत के उत्तर पश्चिम से पठान जनजातियों को संयुक्त किया। और वर्ष 1856 तक ब्रिटिश अधिकार और उनके प्राधिकारी यहां पूरी मजबूती से स्थापित हो गए। जबकि ब्रिटिश साम्राज्य में 19वीं शताब्दी के मध्य में अपनी नई ऊंचाइयां हासिल की, असंतुष्ट स्थानीय शासकों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों तथा सामान्य नागरिकों ने सैनिकों की तरह आवाज़ उठाई जो उन विभिन्न राज्यों की सेनाओं के समाप्त हो जाने से बेरोजगार हो गए थे, जिन्हें ब्रिटिश जनों ने संयुक्त किया था और यह असंतोष बढ़ता गया। जल्दी ही यह एक बगावत के रूप में फूटा जिसने 1857 के विद्रोह का आकार लिया।
1857 में भारतीय विद्रोह
भारत पर विजय, जिसे प्लासी के संग्राम (1757) से आरंभ हुआ माना जा सकता है, व्यावहारिक रूप से 1856 में डलहौजी के कार्यकाल का अंत था। किसी भी अर्थ में यह सुचारु रूप से चलने वाला मामला नहीं था, क्योंकि लोगों के बढ़ते असंतोष से इस अवधि के दौरान अनेक स्थानीय प्रांतियां होती रहीं। यद्यपि 1857 का विद्रोह, जो मेरठ में सैन्य कर्मियों की बगावत से शुरू हुआ, जल्दी ही आगे फैल गया और इससे ब्रिटिश शासन को एक गंभीर चुनौती मिली। जबकि ब्रिटिश शासन इसे एक वर्ष के अंदर ही दबाने में सफल रहा, यह निश्चित रूप से एक ऐसी लोकप्रिय क्रांति थी जिसमें भारतीय शासक, जनसमूह और नागरिक सेना शामिल थी, जिसने इतने उत्साह से इसमें भाग लिया कि इसे भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम कहा जा सकता है।
ब्रिटिश द्वारा जमीनदारी प्रथा को शुरू करना, जिसमें मजदूरों को भारी करों के दबाव से कुचल डाला गया था, इससे जमीन के मालिकों का एक नया वर्ग बना। दस्तकारों को ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के आगमन से नष्ट कर दिया गया। धर्म और जाति प्रथा, जिसने पारम्परिक भारतीय समाज की सुदृढ़ नींव बनाई थी अब ब्रिटिश प्रशासन के कारण खतरे में थी। भारतीय सैनिक और साथ ही प्रशासन में कार्यरत नागरिक वरिष्ठ पदों पर पदोन्नत नहीं किए गए, क्योंकि ये यूरोपियन लोगों के लिए आरक्षित थे। इस प्रकार चारों दिशाओं में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष और बगावत की भावना फैल गई, जो मेरठ में सिपाहियों के द्वारा किए गए इस बगावत के स्वर में सुनाई दी जब उन्हें ऐसी कारतूस मुंह से खोलने के लिए कहा गया जिन पर गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई थी, इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुईं। हिन्दु तथा मुस्लिम दोनों ही सैनिकों ने इन कारतूसों का उपयोग करने से मना कर दिया, जिन्हें 9 मई 1857 को अपने साथी सैनिकों द्वारा क्रांति करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया।
बगावती सेना ने जल्दी ही दिल्ली पर कब्जा कर लिया और यह क्रांति एक बड़े क्षेत्र में फैल गई और देश के लगभग सभी भागों में इसे हाथों हाथ लिया गया। इसमें सबसे भयानक युद्ध दिल्ली, अवध, रोहिलखण्ड, बुंदेल खण्ड, इलाहबाद, आगरा, मेरठ और पश्चिमी बिहार में लड़ा गया। विद्रोही सेनाओं में बिहार में कंवर सिंह के तथा दिल्ली में बख्तखान के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन को एक करारी चोट दी। कानपुर में नाना साहेब ने पेशावर के रूप में उद्घघोषणा की और तात्या टोपे ने उनकी सेनाओं का नेतृत्व किया जो एक निर्भीक नेता थे। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश के साथ एक शानदार युद्ध लड़ा और अपनी सेनाओं का नेतृत्व किया। भारत के हिन्दु, मुस्लिक, सिक्ख और अन्य सभी वीर पुत्र कंधे से कंधा मिलाकर लड़े और ब्रिटिश राज को उखाड़ने का संकल्प लिया। इस क्रांति को ब्रिटिश राज द्वारा एक वर्ष के अंदर नियंत्रित कर लिया गया जो 10 मई 1857 को मेरठ में शुरू हुई और 20 जून 1858 को ग्वालियर में समाप्त हुई
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम PART-2 (1857-1947)
ईस्ट इन्डिया कम्पनी का अंत1857 के विद्रोह की असफलता के परिणामस्वरूप, भारत में ईस्ट इन्डिया कंपनी के शासन का अंत भी दिखाई देने लगा तथा भारत के प्रति ब्रिटिश शासन की नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिसके अंतर्गत भारतीय राजाओं, सरदारों और जमींदारों को अपनी ओर मिलाकर ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के प्रयास किए गए। रानी विक्टोरिया के दिनांक 1 नवम्बर 1858 की घोषणा के अनुसार यह उद्घोषित किया गया कि इसके बाद भारत का शासन ब्रिटिश राजा के द्वारा व उनके वास्ते सेक्रेटरी आफ स्टेट द्वारा चलाया जाएगा।
रानी विक्टोरिया:
गवर्नर जनरल को वायसराय की पदवी दी गई, जिसका अर्थ था कि वह राजा का प्रतिनिधि था। रानी विक्टोरिया जिसका अर्थ था कि वह सम्राज्ञी की पदवी धारण करें और इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राज्य के आंतरिक मामलों में दखल करने की असीमित शक्तियां धारण कर लीं। संक्षेप में भारतीय राज्य सहित भारत पर ब्रिटिश सर्वोच्चता सुदृढ़ रूप से स्थापित कर दी गई। अंग्रेजों ने वफादार राजाओं, जमींदारों और स्थानीय सरदारों को अपनी सहायता दी जबकि, शिक्षित लोगों व आम जन समूह (जनता) की अनदेखी की। उन्होंने अन्य स्वार्थियों जैसे ब्रिटिश व्यापारियों, उद्योगपतियों, बागान मालिकों और सिविल सेवा के कार्मिकों (सर्वेन्ट्स) को बढ़ावा दिया। इस प्रकार भारत के लोगों को शासन चलाने अथवा नीतियां बनाने में कोई अधिकार नहीं था। परिणाम स्वरूप ब्रिटिश शासन से लोगों को घृणा बढ़ती गई, जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जन्म दिया।
राजा राम मोहन राय (1772-1833):
स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व राजा राम मोहन राय, बंकिम चन्द्र और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे सुधारवादियों के हाथों में चला गया। इस दौरान राष्ट्रीय एकता की मनोवैज्ञानिक संकल्पना भी, एक सामान्य विदेशी अत्याचारी/तानाशाह के विरूद्ध संघर्ष की आग को धीरे-धीरे आगे बढ़ाती रही।
राजा राम मोहन राय ने समाज को उसकी बुरी प्रथाओं से मुक्त करने के उद्देश्य से 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की। उन्होंने सती, बाल विवाह व परदा पद्धति जैसी बुरी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए काम किया, विधवा विवाह स्त्री शिक्षा और भारत में अंग्रेजी पद्धति से शिक्षा दिए जाने का समर्थन किया। इन्हीं प्रयासों के कारण ब्रिटिश शासन द्वारा सती होने को एक कानूनी अपराध घोषित किया गया।
स्वामी विवेकानन्द (1863-1902)
स्वामी विवेकानन्द जो रामकृष्ण परमहंस के शिष्य/अनुयायी थे, ने 1897 में वेलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। उन्होंने वेदांतिक दर्शन की सर्वोच्चता का समर्थन किया। 1893 में शिकागो (यू एस ए) की विश्व धर्म कांफ्रेस में उनके भाषण ने, पहली बार पश्चिमी लोगों को, हिंदू धर्म की महानता को समझने पर मज़बूर किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) का गठन
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की नींव, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में कलकत्ता में भारत एसोसिएशन के गठन के साथ रखी गई। एसोसिएशन का उद्देश्य शिक्षित मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करना, भारतीय समाज को संगठित कार्यवाही के लिए प्रेरित करना था। एक प्रकार से भारतीय एसोसिएशन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसकी स्थापना सेवा निवृत्त ब्रिटिश अधिकारी ए.ओ.ह्यूम की सहायता की गई थी, की पूर्वगामी थी। 1895 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई एन सी) के जन्म से नव शिक्षित मध्यम वर्ग के राजनीति में आने के लक्ष्ण दिखाई देने लगे तथा इससे भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन दिसम्बर 1885 में बम्बई में वोमेश चन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में हुआ तथा इसमें अन्यों के साथ-साथ भाग लिया।
सदी के बदलने के समय, बाल गंगाधर तिलक और अरविंद घोष जैसे नेताओं द्वारा चलाए गए "स्वदेशी आंदोलन" के मार्फत् स्वतंत्रता आंदोलन सामान्य अशिक्षित लोगों तक पहंचा। 1906 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन जिसकी अध्यक्षता दादा भाई नौरोजी ने की थी, ने "स्वराज्य" प्राप्त करने का नारा दिया अर्थात् एक प्रकार का ऐसा स्वशासन जा ब्रिटिश नियंत्रण में चुने हुए व्यक्तियों द्वारा चलाया जाने वाला शासन हो, जैसा कनाडा व आस्ट्रेलिया में, जो ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन थे, में प्रचलित था।
बीच, 1909 में ब्रिटिश सरकार ने, भारत सरकार के ढांचे में कुछ सुधार लाने की घोषणा की, जिसे मोरले-मिन्टो सुधारों के नाम से जाना जाता है। परन्तु इन सुधारों से निराशा ही प्राप्त हुई क्योंकि इसमें प्रतिनिधि सरकार की स्थापना की दिशा में बढ़ने का कोई प्रयास दिखाई नहीं दिया। मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व दिए जाने के प्रावधान को हिंदु-मुसलमान एकता जिस पर राष्ट्रीय आंदोलन टिका हुआ था, के लिए खतरे के रूप में देखा गया अत: मुसलमानों के नेता मोहम्मद अली जिन्ना समेत सभी नेताओं द्वारा इन सुधारों का ज़ोरदार विरोध किया गया। इसके बाद सम्राट जार्ज पंचम ने दिल्ली में दो घोषणाएं की, प्रथम बंगाल विभाजन जो 1905 में किया गया था को निरस्त किया गया, द्वितीय, यह घोषणा की गई कि भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाई जाएगी।
वर्ष 1909 में घोषित सुधारों से असंतुष्ट होकर स्वराज आन्दोलन के संघर्ष को और तेज कर दिया गया। जहां एक ओर बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चन्द्र पाल जैसे महान नेताओं ने ब्रिटिश राज के खिलाफ एक तरह से लगभग युद्ध ही शुरू कर दिया तो दूसरी ओर क्रांतिकारियों ने हिंसात्मक गतिविधियां शुरू कर दीं। पूरे देश में ही एक प्रकार की अस्थिरता की लहर चल पड़ी। लोगों के बीच पहले से ही असंतोष था, इसे और बढ़ाते हुए 1919 में रॉलेट एक्ट अधिनियम पारित किया गया, जिससे सरकार ट्रायल के बिना लोगों को जेल में रख सकती थी। इससे लोगों में स्वदेश की भावना फैली और बड़े-बड़े प्रदर्शन तथा धरने दिए जाने लगे, जिन्हें सरकार ने जलियांवाला बाग नर संहार जैसी अत्याचारी गतिविधियों से दमित करने का प्रयास किया, जहां हजारों बेगुनाह शांति प्रिय व्यक्तियों को जनरल डायर के आदेश पर गोलियों से भून दिया गया।
जलियांवाला बाग नरसंहार
दिनांक 13 अप्रेल 1919 को जलियांवाला बाग में हुआ नरसंहार भारत में ब्रिटिश शासन का एक अति घृणित अमानवीय कार्य था। पंजाब के लोग बैसाखी के शुभ दिन जलियांवाला बाग, जो स्वर्ण मंदिर के पास है, ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ अपना शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शित करने के लिए एकत्रित हुए। अचानक जनरल डायर अपने सशस्त्र पुलिस बल के साथ आया और निर्दोष निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई, तथा महिलाओं और बच्चों समेंत सैंकड़ों लोगों को मार दिया। इस बर्बर कार्य का बदला लेने के लिए बाद में ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग के कसाई जनरल डायर को मार डाला।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद मोहनदास करमचन्द गांधी कांग्रेस के निर्विवाद नेता बने। इस संघर्ष के दौरान महात्मा गांधी ने अहिंसात्मक आंदोलन की नई तरकीब विकसित की, जिसे उसने "सत्याग्रह" कहा, जिसका ढीला-ढाला अनुवाद "नैतिक शासन" है। गांधी जो स्वयं एक श्रद्धावान हिंदु थे, सहिष्णुता, सभी धर्मों में भाई में भाईचारा, अहिंसा व सादा जीवन अपनाने के समर्थक थे। इसके साथ, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस जैसे नए नेता भी सामने आए व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए संपूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य अपनाने की वकालत की।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम PART-3 (1857-1947)
असहयोग आंदोलन
सितम्बर 1920 से फरवरी 1922 के बीच महात्मा गांधी तथा भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया गया, जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई जागृति प्रदान की। जलियांवाला बाग नर संहार सहित अनेक घटनाओं के बाद गांधी जी ने अनुभव किया कि ब्रिटिश हाथों में एक उचित न्याय मिलने की कोई संभावना नहीं है इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से राष्ट्र के सहयोग को वापस लेने की योजना बनाई और इस प्रकार असहयोग आंदोलन की शुरूआत की गई और देश में प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रभाव हुआ। यह आंदोलन अत्यंत सफल रहा, क्योंकि इसे लाखों भारतीयों का प्रोत्साहन मिला। इस आंदोलन से ब्रिटिश प्राधिकारी हिल गए।
साइमन कमीशन:
असहयोग आंदोलन असफल रहा। इसलिए राजनैतिक गतिविधियों में कुछ कमी आ गई थी। साइमन कमीशन को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत सरकार की संरचना में सुधार का सुझाव देने के लिए 1927 में भारत भेजा गया। इस कमीशन में कोई भारतीय सदस्य नहीं था और सरकार ने स्वराज के लिए इस मांग को मानने की कोई इच्छा नहीं दर्शाई। अत: इससे पूरे देश में विद्रोह की एक चिंगारी भड़क उठी तथा कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग ने भी लाला लाजपत राय के नेतृत्व में इसका बहिष्कार करने का आव्हान किया। इसमें आने वाली भीड़ पर लाठी बरसाई गई और लाला लाजपत राय, जिन्हें शेर - ए - पंजाब भी कहते हैं, एक उपद्रव से पड़ी चोटों के कारण शहीद हो गए।
नागरिक अवज्ञा आंदोलन
महात्मा गांधी ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसकी शुरूआत दिसंबर 1929 में कांग्रेस के सत्र के दौरान की गई थी। इस अभियान का लक्ष्य ब्रिटिश सरकार के आदेशों की संपूर्ण अवज्ञा करना था। इस आंदोलन के दौरान यह निर्णय लिया गया कि भारत 26 जनवरी को पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। अत: 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में बैठकें आयोजित की गई और कांग्रेस ने तिरंगा लहराया। ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की तथा इसके लिए लोगों को निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया, हजारों लोगों को मार डाला गया। गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू के साथ कई हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। परन्तु यह आंदोलन देश के चारों कोनों में फैल चुका था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया और गांधी जी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में लंदन में भाग लिया। परन्तु इस सम्मेलन का कोई नतीजा नहीं निकला और नागरिक अवज्ञा आंदोलन पुन: जीवित हो गया।
इस समय, विदेशी निरंकुश शासन के खिलाफ प्रदर्शन स्वरूप दिल्ली में सेंट्रल असेम्बली हॉल (अब लोकसभा) में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को गिरफ्तार किया गया था। 23 मार्च 1931 को उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम PART-4 (1857-1947)
भारत छोड़ो आंदोलन
अगस्त 1942 में गांधी जी ने ''भारत छोड़ो आंदोलन'' की शुरूआत की तथा भारत छोड़ कर जाने के लिए अंग्रेजों को मजबूर करने के लिए एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन ''करो या मरो'' आरंभ करने का निर्णय लिया। इस आंदोलन के बाद रेलवे स्टेशनों, दूरभाष कार्यालयों, सरकारी भवनों और अन्य स्थानों तथा उप निवेश राज के संस्थानों पर बड़े स्तर पर हिंसा शुरू हो गई। इसमें तोड़ फोड़ की ढेर सारी घटनाएं हुईं और सरकार ने हिंसा की इन गतिविधियों के लिए गांधी जी को उत्तरदायी ठहराया और कहा कि यह कांग्रेस की नीति का एक जानबूझ कर किया गया कृत्य है। जबकि सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, कांग्रेस पर प्रतिबंद लगा दिया गया और आंदोलन को दबाने के लिए सेना को बुला लिया गया।
इस बीच नेता जी सुभाष चंद्र बोस, जो अब भी भूमिगत थे, कलकत्ता में ब्रिटिश नजरबंदी से निकल कर विदेश पहुंच गए और ब्रिटिश राज को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए उन्होंने वहां इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) या आजाद हिंद फौज का गठन किया।
द्वितीय विश्व युद्ध सितम्बर 1939 में शुरू हुआ और भारतीय नेताओं से परामर्श किए बिना भारत की ओर से ब्रिटिश राज के गर्वनर जनरल ने युद्ध की घोषणा कर दी। सुभाष चंद्र बोस ने जापान की सहायता से ब्रिटिश सेनाओं के साथ संघर्ष किया और अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों को ब्रिटिश राज के कब्जे से मुक्त करा लिया तथा वे भारत की पूर्वोत्तर सीमा पर भी प्रवेश कर गए। किन्तु 1945 में जापान ने पराजय पाने के बाद नेता जी एक सुरक्षित स्थान पर आने के लिए हवाई जहाज से चले परन्तु एक दुर्घटनावश उनके हवाई जहाज के साथ एक हादसा हुआ और उनकी मृत्यु हो गई।
"''तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हें आजादी दूंगा''" - उनके द्वारा दिया गया सर्वाधिक लोकप्रिय नारा था, जिसमें उन्होंने भारत के लोगों को आजादी के इस संघर्ष में भाग लेने का आमंत्रण दिया।
भारत और पाकिस्तान का बंटवारा
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी शासन में आई। लेबर पार्टी आजादी के लिए भारतीय नागरिकों के प्रति सहानुभूति की भावना रखती थी। मार्च 1946 में एक केबिनैट कमीशन भारत भेजा गया, जिसके बाद भारतीय राजनैतिक परिदृश्य का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया गया, एक अंतरिम सरकार के निर्माण का प्रस्ताव दिया गया और एक प्रांतीय विधान द्वारा निर्वाचित सदस्यों और भारतीय राज्यों के मनोनीत व्यक्तियों को लेकर संघटक सभा का गठन किया गया। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व ने एक अंतरिम सरकार का निर्माण किया गया। जबकि मुस्लिम लीग ने संघटक सभा के विचार विमर्श में शामिल होने से मना कर दिया और पाकिस्तान के लिए एक अलग राज्य बनाने में दबाव डाला। लॉर्ड माउंटबेटन, भारत के वाइसराय ने भारत और पाकिस्तान के रूप में भारत के विभाजन की एक योजना प्रस्तुत की और तब भारतीय नेताओं के सामने इस विभाजन को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि मुस्लिम लीग अपनी बात पर अड़ी हुई थी।
इस प्रकार 14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को भारत आजाद हुआ (तब से हर वर्ष भारत में 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है)। जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 1964 तक उनका कार्यकाल जारी रहा। राष्ट्र की भावनाओं को स्वर देते हुए प्रधानमंत्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा,
कई वर्ष पहले हमने नियति के साथ निश्चित किया और अब वह समय आ गया है जब हम अपनी शपथ दोबारा लेंगे, समग्रता से नहीं या पूर्ण रूप से नहीं बल्कि अत्यंत भरपूर रूप से। मध्य रात्रि के घंटे की चोट पर जब दुनिया सो रही होगी हिन्दुस्तान जीवन और आजादी के लिए जाग उठेगा। एक ऐसा क्षण जो इतिहास में दुर्लभ ही आता है, जब हम अपने पुराने कवच से नए जगत में कदम रखेंगे, जब एक युग की समाप्ति होगी और जब राष्ट्र की आत्मा लंबे समय तक दमित रहने के बाद अपनी आवाज पा सकेगा। हम आज दुर्भाग्य का एक युग समाप्त कर रहे हैं और भारत अपनी दोबारा खोज आरंभ कर रहा है।
पहले, संघटक सभा का गठन भारतीय संविधान को रूपरेखा देना के लिए जुलाई 1946 में किया गया था और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को इसका राष्ट्रपति निर्वाचित किया गया था। भारतीय संविधान, जिसे 26 नवम्बर 1949 को संघटक सभा द्वारा अपनाया गया था। 26 जनवरी 1950 को यह संविधान प्रभावी हुआ और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया।
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